कभी रूख़ पर रही तेरे कभी घूँघट पे ग़ज़ल।
कोई माथे , कोई दामन की थी सिलवट पे ग़ज़ल ॥
हमारी प्यास भी क्या प्यास थी जो बुझ न सकी ।
कही प्यासे खड़े हो कर किसी पनघट पे ग़ज़ल ॥
शराब-ओ-हुस्न में डूबे तो ये महसूस हुआ ।
लबालब जाम से हो कर रुकी तलछट पे ग़ज़ल ॥
हमेशा ही रहा मम्लूक तेरे हुस्न का वो ।
पढ़ी शायर ने तेरी एक ही आहट पे ग़ज़ल ॥
बुलावा मौत का आया तो उसके साथ चले ।
मगर जाते हुए कह दी तभी मरघट पे ग़ज़ल ॥
परीशाँ इश्क़ के मारों ने हो के दी जो सदा ।
सिसक के रो पडी तब हुस्न की चौखट पे ग़ज़ल ॥
मुझे तो उम्र भर सहने पड़े नख़रे किसी के ।
मज़ा है जब कहो 'सैनी' किसी नटखट पे ग़ज़ल ॥
डा० सुरेन्द्र सैनी
कोई माथे , कोई दामन की थी सिलवट पे ग़ज़ल ॥
हमारी प्यास भी क्या प्यास थी जो बुझ न सकी ।
कही प्यासे खड़े हो कर किसी पनघट पे ग़ज़ल ॥
शराब-ओ-हुस्न में डूबे तो ये महसूस हुआ ।
लबालब जाम से हो कर रुकी तलछट पे ग़ज़ल ॥
हमेशा ही रहा मम्लूक तेरे हुस्न का वो ।
पढ़ी शायर ने तेरी एक ही आहट पे ग़ज़ल ॥
बुलावा मौत का आया तो उसके साथ चले ।
मगर जाते हुए कह दी तभी मरघट पे ग़ज़ल ॥
परीशाँ इश्क़ के मारों ने हो के दी जो सदा ।
सिसक के रो पडी तब हुस्न की चौखट पे ग़ज़ल ॥
मुझे तो उम्र भर सहने पड़े नख़रे किसी के ।
मज़ा है जब कहो 'सैनी' किसी नटखट पे ग़ज़ल ॥
डा० सुरेन्द्र सैनी
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