Friday, 14 February 2014

नाज़ुक गिरह नहीं है

तुम्हारे दिल में अभी तलक क्यूँ वफ़ा की ख़ातिर जगह नहीं है ।
वफ़ाओं की कर सके कभी जो किसी के बस की शरह नहीं है ॥

कभी भी शिकवे गिलों में आकर खुले जो थोड़ी सी ठेस लग कर ।
दिलों में हमने जो बाँध रक्खी वो एसी नाज़ुक गिरह नहीं है ॥

हमें है मंजूर अब हमेशा जो होगा हर हुक्म वो तुम्हारा ।
तुम्हारा जो फ़ैसिला पलट दे समझ में अपनी जुरह नहीं है ॥

क़सम जो खाई वफ़ा की हमने निभाएंगे उम्र भर इसे हम ।
हवा के झोके से टूट जाए ये शाख़-ए -गुल की तरह नहीं है ॥

हमेशा चाहूँ तुम्हारे दिल में मुक़ाम इक अपना बना सकूँ मैं ।
ज़रा सी निस्बत मिले तुम्हारी तो फिर कोई भी कलह नहीं है ॥

किया है जिसने तबाह सबको सभी का सुख-चैन लूट डाला ।
सभी की नज़रों में शख़्स एसा भिखारी है आज शह नहीं है ॥

लहू में उसकी अनापरस्ती उसूलों का है बड़ा ही पक्का ।
भटक जाए रास्ते से अपने ये 'सैनी'सबकी तरह नहीं है ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी

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