छुपे हो तुम कहीँ जा कर सदा दूँ भी तो कैसे दूँ ।
तुम्हारी अब मुहब्बत का सिला दूँ भी तो कैसे दूँ ॥
ज़बाँ ख़ामोश है हालात की ज़ंजीर हाथों में ।
भला इस हाल में तुमको दुआ दूँ भी तो कैसे दूँ ॥
मदावा काम आ जाता अगर होता मरज़ कुछ भी ।
मरज़ तो मौत का है फिर दवा दूँ भी तो कैसे दूँ ॥
किसी को ठेस लगती है तो मेरा दिल लरज़ता है ।
ज़फ़ाओं की किसी को मैं सज़ा दूँ भी तो कैसे दूँ ॥
पिलाता ही रहा मुझको जो अब तक ज़ह्र रात-ओ-दिन ।
उसे भी ज़ह्र बदले में भला दूँ भी तो कैसे दूँ ॥
बची हैं चंद साँसे छोड़ उसको अब तू मरने दे ।
मैं चारागर को अपनी ये रज़ा दूँ भी तो कैसे दूँ ॥
नहीं तैयार सुनने को ये 'सैनी' कान से बहरा ।
सुना कर मैं ग़ज़ल उसको मज़ा दूँ भी तो कैसे दूँ ॥
डा० सुरेन्द्र सैनी
तुम्हारी अब मुहब्बत का सिला दूँ भी तो कैसे दूँ ॥
ज़बाँ ख़ामोश है हालात की ज़ंजीर हाथों में ।
भला इस हाल में तुमको दुआ दूँ भी तो कैसे दूँ ॥
मदावा काम आ जाता अगर होता मरज़ कुछ भी ।
मरज़ तो मौत का है फिर दवा दूँ भी तो कैसे दूँ ॥
किसी को ठेस लगती है तो मेरा दिल लरज़ता है ।
ज़फ़ाओं की किसी को मैं सज़ा दूँ भी तो कैसे दूँ ॥
पिलाता ही रहा मुझको जो अब तक ज़ह्र रात-ओ-दिन ।
उसे भी ज़ह्र बदले में भला दूँ भी तो कैसे दूँ ॥
बची हैं चंद साँसे छोड़ उसको अब तू मरने दे ।
मैं चारागर को अपनी ये रज़ा दूँ भी तो कैसे दूँ ॥
नहीं तैयार सुनने को ये 'सैनी' कान से बहरा ।
सुना कर मैं ग़ज़ल उसको मज़ा दूँ भी तो कैसे दूँ ॥
डा० सुरेन्द्र सैनी
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