Sunday, 16 February 2014

कैसे दूँ

छुपे हो तुम कहीँ जा कर सदा दूँ भी तो कैसे दूँ । 
तुम्हारी अब मुहब्बत का सिला दूँ भी तो कैसे दूँ ॥ 

ज़बाँ ख़ामोश है हालात की ज़ंजीर हाथों में । 
भला इस हाल में तुमको दुआ दूँ भी तो कैसे दूँ ॥ 

मदावा काम आ जाता अगर होता मरज़ कुछ भी । 
मरज़ तो मौत का है फिर दवा दूँ भी तो कैसे दूँ ॥ 

किसी को ठेस लगती है तो मेरा दिल लरज़ता है । 
ज़फ़ाओं की किसी को मैं सज़ा दूँ भी तो कैसे दूँ ॥ 

पिलाता ही रहा मुझको जो अब तक ज़ह्र रात-ओ-दिन । 
उसे भी ज़ह्र बदले में भला दूँ भी तो कैसे दूँ ॥ 

बची हैं चंद  साँसे छोड़ उसको अब तू मरने दे ।
मैं चारागर को अपनी ये रज़ा दूँ भी तो कैसे दूँ ॥ 

नहीं तैयार सुनने को ये 'सैनी' कान से बहरा । 
सुना कर मैं ग़ज़ल उसको मज़ा दूँ भी तो कैसे दूँ ॥ 

डा० सुरेन्द्र सैनी  

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