Wednesday, 26 February 2014

एसी उलझी निक़ाब हाथों से

एसी उलझी निक़ाब हाथों से । 
गिर पडी सब किताब हाथों से ॥ 

मूड कुछ था शरारती उनका । 
छीन भागे गुलाब हाथों से ॥ 

अक्स जब बन नहीं सका अन्वर । 
कर दिया सब ख़राब हाथों से ॥ 

एसे साक़ी को अब तरसता हूँ । 
जो पिला दे शराब हाथों से ॥ 

आज इनआम कुछ तो मिल जाए । 
आपके लाजवाब हाथों से ॥ 

उसके एहसास से लगा जैसे । 
छू लिया आफ़ताब हाथों से ॥ 

उम्र भर बात का तेरी 'सैनी'। 
ख़ुद ही लिक्खा जवाब हाथों से ॥ 

डा० सुरेन्द्र सैनी

Sunday, 23 February 2014

घूँघट पे ग़ज़ल

कभी रूख़ पर रही तेरे कभी घूँघट पे ग़ज़ल।
कोई माथे , कोई दामन की थी सिलवट पे ग़ज़ल ॥

हमारी प्यास भी क्या प्यास थी जो बुझ न सकी ।
कही प्यासे खड़े हो कर किसी पनघट पे ग़ज़ल ॥

शराब-ओ-हुस्न में डूबे तो ये महसूस हुआ ।
लबालब जाम से हो कर रुकी तलछट पे ग़ज़ल ॥

हमेशा ही रहा मम्लूक तेरे हुस्न का वो ।
पढ़ी शायर ने तेरी एक ही आहट पे ग़ज़ल ॥

बुलावा मौत का आया तो उसके साथ चले ।
मगर जाते हुए कह दी तभी मरघट पे ग़ज़ल ॥

परीशाँ इश्क़ के मारों ने हो के दी जो सदा ।
सिसक के रो पडी तब हुस्न की चौखट पे ग़ज़ल ॥

मुझे तो उम्र भर सहने पड़े नख़रे किसी के ।
मज़ा है जब कहो 'सैनी' किसी नटखट पे ग़ज़ल ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी  


Wednesday, 19 February 2014

ग़ाफ़िल ख़ुदा नहीं होता

गर वो खुल कर मिला नहीं होता । 
दिल यूँ उस पर फ़िदा  नहीं होता ॥ 

ख्वामख्वाह वो  सज़ा नहीं देता  । 
क्योंकि ग़ाफ़िल ख़ुदा  नहीं होता ॥ 

सोच है आपकी फ़क़त अपनी । 
काम छोटा- बड़ा  नहीं होता ॥ 

ज़ह्न में क्या चले किसी के कब । 
शक्ल पर कुछ लिखा  नहीं होता ॥ 

इतनी उम्मीद मत किया कीजे । 
हर कोई आपसा  नहीं होता ॥ 

बज़्म मरघट सी मुझको लगती है । 
जिसमें कुछ शोर सा  नहीं होता ॥ 

ख़ुद से बावस्तगी नहीं जिसकी । 
वो कभी आपका  नहीं होता ॥ 

आप जो भी करें मगर कुछ भी । 
उसकी मर्ज़ी बिना  नहीं होता ॥ 

तुमसे कुछ अर्ज-ए -हाल कर तो दे । 
'सैनी' का हौसला  नहीं होता ॥ 

डा० सुरेन्द्र सैनी  

Sunday, 16 February 2014

कैसे दूँ

छुपे हो तुम कहीँ जा कर सदा दूँ भी तो कैसे दूँ । 
तुम्हारी अब मुहब्बत का सिला दूँ भी तो कैसे दूँ ॥ 

ज़बाँ ख़ामोश है हालात की ज़ंजीर हाथों में । 
भला इस हाल में तुमको दुआ दूँ भी तो कैसे दूँ ॥ 

मदावा काम आ जाता अगर होता मरज़ कुछ भी । 
मरज़ तो मौत का है फिर दवा दूँ भी तो कैसे दूँ ॥ 

किसी को ठेस लगती है तो मेरा दिल लरज़ता है । 
ज़फ़ाओं की किसी को मैं सज़ा दूँ भी तो कैसे दूँ ॥ 

पिलाता ही रहा मुझको जो अब तक ज़ह्र रात-ओ-दिन । 
उसे भी ज़ह्र बदले में भला दूँ भी तो कैसे दूँ ॥ 

बची हैं चंद  साँसे छोड़ उसको अब तू मरने दे ।
मैं चारागर को अपनी ये रज़ा दूँ भी तो कैसे दूँ ॥ 

नहीं तैयार सुनने को ये 'सैनी' कान से बहरा । 
सुना कर मैं ग़ज़ल उसको मज़ा दूँ भी तो कैसे दूँ ॥ 

डा० सुरेन्द्र सैनी  

Friday, 14 February 2014

नाज़ुक गिरह नहीं है

तुम्हारे दिल में अभी तलक क्यूँ वफ़ा की ख़ातिर जगह नहीं है ।
वफ़ाओं की कर सके कभी जो किसी के बस की शरह नहीं है ॥

कभी भी शिकवे गिलों में आकर खुले जो थोड़ी सी ठेस लग कर ।
दिलों में हमने जो बाँध रक्खी वो एसी नाज़ुक गिरह नहीं है ॥

हमें है मंजूर अब हमेशा जो होगा हर हुक्म वो तुम्हारा ।
तुम्हारा जो फ़ैसिला पलट दे समझ में अपनी जुरह नहीं है ॥

क़सम जो खाई वफ़ा की हमने निभाएंगे उम्र भर इसे हम ।
हवा के झोके से टूट जाए ये शाख़-ए -गुल की तरह नहीं है ॥

हमेशा चाहूँ तुम्हारे दिल में मुक़ाम इक अपना बना सकूँ मैं ।
ज़रा सी निस्बत मिले तुम्हारी तो फिर कोई भी कलह नहीं है ॥

किया है जिसने तबाह सबको सभी का सुख-चैन लूट डाला ।
सभी की नज़रों में शख़्स एसा भिखारी है आज शह नहीं है ॥

लहू में उसकी अनापरस्ती उसूलों का है बड़ा ही पक्का ।
भटक जाए रास्ते से अपने ये 'सैनी'सबकी तरह नहीं है ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी

Wednesday, 12 February 2014

ख़ुदा मिला होता

मैं इरादों का क्यूँ बुरा होता ।
तू अगर ख़ुद ही में भला होता ॥

मुझसे इक बार तो कहा होता ।
तेरे क़दमों में गिर गया होता ॥

तेरे हिस्से की प्यास ले लेता ।
इससे तेरा अगर भला होता ॥

दिल में जज़्बात गर न होते तो ।
मैं भी इस्पात का बना होता ॥

दोस्ती की नहीं अमीरों से ।
मैं समुंदर में मिल चुका होता ॥

कितनी मुश्किल ख़ुदा की हो जाती ।
गर किसी को ख़ुदा मिला होता ॥

आज बेफ़िक्र होके सोता वो ।
काश 'सैनी'बिना पढ़ा होता ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी     

Monday, 10 February 2014

किस काम का है

इनआम नहीं ये काम  का है ।
जल्वा तो फ़क़त ये नाम  का है ॥

जिस शेर का मतलब पूछ लिया ।
वो शेर भला किस काम  का है ॥

 इस ख़त में क्यूँ मेरा नाम लिखा ।
ये ख़त तो किसी गुमनाम  का है ॥

हर सिम्त जो तेरा ज़िक्र हुआ ।
ये काम तेरे बदनाम  का है ॥

मिलना था उन्हें तो आज अभी ।
अब वक़्त मुक़र्र शाम  का है ॥

शुरुआत करें तो कैसे करें ।
बस डर जो उन्हें अंजाम  का है ॥

अब और ग़ज़ल 'सैनी'  न कहो ।
ये वक़्त अभी आराम  का है ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी  

Friday, 7 February 2014

मेरे ख़िलाफ़

ख़ारों में उम्र भर पली साज़िश मेरे ख़िलाफ़ ।
दिल में गुलों के भी रही आतिश मेरे ख़िलाफ़ ॥

वादा तो उम्र भर का था छोड़ा ये फिर क्यूँ साथ ।
मन में कहाँ से  आ गयी रंजिश मेरे ख़िलाफ़ ॥

दो गज़ ज़मीँ खुली मिली इस आसमाँ तले ।
आंधी तो थी  मगर हुई बारिश मेरे ख़िलाफ़ ॥

आख़िर  मुझे बचा लिया मेरे ख़ुदा ने आज ।
यूँ दुश्मनों ने की बहुत साज़िश मेरे ख़िलाफ़ ॥

बचता -बचाता आ गया तेरी पनाह में ।
मुँह खोल कर खड़ी हुई गर्दिश मेरे ख़िलाफ़ ॥

सारे जहाँ से दोस्ती का दम तो मैं भरूँ ।
लोगों ने मिलके  डाल दी बंदिश मेरे ख़िलाफ़ ॥

हिंदी-ओ-उर्दू ही बनी 'सैनी'हमेशा ढाल ।
हालाकि बोलती रही इंग्लिश मेरे ख़िलाफ़ ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी  

किसी के इश्क़ ने

सलामत ज़िंदगी  रक्खी  किसी के इश्क़ ने मेरी । 
बचा कर हर ख़ुशी  रक्खी  किसी के इश्क़ ने मेरी ॥  

अना के टूटने के सैंकड़ों इमकान थे लेकिन । 
अना मज़बूत ही रक्खी  किसी के इश्क़ ने मेरी ॥  

ख़ुदा परवर की नज़रों में न गिर जाऊँ किसी दिन मैं । 
नज़र में बंदगी  रक्खी  किसी के इश्क़ ने मेरी ॥  

तरद्दुद में भी उम्दा सोच ही क़ाइम रही अब तक । 
अटल शाइस्तगी  रक्खी  किसी के इश्क़ ने मेरी ॥  

मुसीबत  तो बहुत आयी मेरे कमज़ोर से तन पर । 
अलालत में कमी  रक्खी  किसी के इश्क़ ने मेरी ॥  

चमन में जा के अपनी हर कली से बात करता हूँ । 
शिगुफ़्ता हर कली  रक्खी  किसी के इश्क़ ने मेरी ॥  

बलंदी पर नहीं पहुँचा तो इसका ग़म नहीं 'सैनी' । 
सुखन में पुख़्तगी  रक्खी  किसी के इश्क़ ने मेरी ॥  

डा० सुरेन्द्र सैनी  

Monday, 3 February 2014

चुरा के चल

न नज़र किसी से चुरा  के चल ।
ज़रा अपने सर को उठा  के चल ॥

ये दुपट्टा सर से खिसक गया ।
कोई पिन तो इसमें लगा  के चल ॥

मेरे पावँ तेज़ न चल सकें ।
मेरे पा से पा मिला  के चल ॥

ये हवाएँ धूल  भरी हुईं ।
तू निक़ाब रुख़ पे गिरा  के चल ॥

जो सुना  नहीं वो सुना मुझे ।
नया गीत अपना सुना  के चल ॥

तेरा इश्क़ कोई गुनाह नहीं ।
ये ज़माने भर को बता  के चल ॥

तुझे ढूँढता फिरे  दर -ब -दर ।
तू न 'सैनी' को यूँ भुला  के चल ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी