Monday, 28 July 2014

जानता कैसे

तुझको दिल से करूँ जुदा कैसे | 
हो भी आख़िर ये हौसला कैसे ||

एक शिद्दत थी उसकी नज़रों में | 
उसका इज़हार टालता कैसे ||

मेरी मंज़िल का छोर है ही नहीं | 
ग़ाम गिन कर मैं देखता कैसे ||

हो रहा क़त्ल बेगुनाहों का | 
अब ये सुलझे मुआमला कैसे ||

क़ैद में उम्र भर रहा तेरी | 
“वो ज़माने को जानता कैसे ||”

फँस गया ख़ुद के मैं झमेलों में | 
तेरे बारे में सोचता कैसे ||

मेरे जज़्बात का जो क़ातिल है | 
मान लूँ उसको रहनुमा कैसे ||

रोज़ पी कर मैं शेर कहता हूँ | 
ख़ुद कह दूँ मैं पारसा कैसे ||

मांग ली आज हस्ती सैनी’की |
यार को अब करे मना कैसे ||

डा०सुरेन्द्र सैनी

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