Tuesday, 11 March 2014

ग़रज़ आश्ना

जिससे जो भी मिला माँगता ही रहा । 
उम्र भर मैं ग़रज़ आश्ना ही रहा ॥ 

दोस्ती उसको क्यूँ रास आती भला । 
काम जिसका सदा तोड़ना ही रहा ॥

उसकी शौकत के आगे हूँ बौना बहुत । 
उसके आगे मेरा सर झुका ही रहा ॥ 

मुस्कुराता रहा वो रुला कर मुझे । 
इश्क़ उसके लिए खेल सा ही रहा ॥

मैंने हद से ज़ियादा मनाया उसे । 
फिर भी हर बात पर रूठता ही रहा ॥

शौक उसको था दिल तोड़ने का बहुत । 
मेरा शीशा-ए -दिल टूटता ही रहा ॥

मेरे हालात का उसको अंदाज़ क्या । 
अब तो मतलब न कुछ वास्ता ही रहा ॥

दौर-ए -गर्दिश में घिर कर यूँ बेबस हुआ । 
हर घड़ी हौसला ढूँढता ही रहा ॥

जान तेरे लिए दोस्तों ने तो दी । 
पर तू 'सैनी' सदा बेवफ़ा ही रहा ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी  

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