जिससे जो भी मिला माँगता ही रहा ।
उम्र भर मैं ग़रज़ आश्ना ही रहा ॥
दोस्ती उसको क्यूँ रास आती भला ।
काम जिसका सदा तोड़ना ही रहा ॥
उसकी शौकत के आगे हूँ बौना बहुत ।
उसके आगे मेरा सर झुका ही रहा ॥
मुस्कुराता रहा वो रुला कर मुझे ।
इश्क़ उसके लिए खेल सा ही रहा ॥
मैंने हद से ज़ियादा मनाया उसे ।
फिर भी हर बात पर रूठता ही रहा ॥
शौक उसको था दिल तोड़ने का बहुत ।
मेरा शीशा-ए -दिल टूटता ही रहा ॥
मेरे हालात का उसको अंदाज़ क्या ।
अब तो मतलब न कुछ वास्ता ही रहा ॥
दौर-ए -गर्दिश में घिर कर यूँ बेबस हुआ ।
हर घड़ी हौसला ढूँढता ही रहा ॥
जान तेरे लिए दोस्तों ने तो दी ।
पर तू 'सैनी' सदा बेवफ़ा ही रहा ॥
डा० सुरेन्द्र सैनी
उम्र भर मैं ग़रज़ आश्ना ही रहा ॥
दोस्ती उसको क्यूँ रास आती भला ।
काम जिसका सदा तोड़ना ही रहा ॥
उसकी शौकत के आगे हूँ बौना बहुत ।
उसके आगे मेरा सर झुका ही रहा ॥
मुस्कुराता रहा वो रुला कर मुझे ।
इश्क़ उसके लिए खेल सा ही रहा ॥
मैंने हद से ज़ियादा मनाया उसे ।
फिर भी हर बात पर रूठता ही रहा ॥
शौक उसको था दिल तोड़ने का बहुत ।
मेरा शीशा-ए -दिल टूटता ही रहा ॥
मेरे हालात का उसको अंदाज़ क्या ।
अब तो मतलब न कुछ वास्ता ही रहा ॥
दौर-ए -गर्दिश में घिर कर यूँ बेबस हुआ ।
हर घड़ी हौसला ढूँढता ही रहा ॥
जान तेरे लिए दोस्तों ने तो दी ।
पर तू 'सैनी' सदा बेवफ़ा ही रहा ॥
डा० सुरेन्द्र सैनी
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