Monday, 31 March 2014

मेरा वुजूद पिसता है


तेरे दिल का उजास (उजाला) ही तो हूँ । 
तेरा हमदर्द ख़ास ही तो हूँ ॥ 

क्यूँ मुझे तू तलाश करता है । 
मैं तेरे आस-पास ही तो हूँ ॥ 

और तो ठीक -ठाक है सब कुछ ।
बस ज़रा सा उदास ही तो हूँ ॥ 

जो चहेतों में था तेरे अब तक । 
देख मैं वो ख़िलास ही तो हूँ ॥ 

जिसमें मेरा वुजूद पिसता  है ।  
वक़्त की इक ख़रास ही तो हूँ ॥ 

ख़ाब देखे सुनहरे कल के जो । 
वो फ़क़त इक क़ियास ही तो हूँ ॥ 

रोज़ 'सैनी' जो घोल देता है । 
वो ग़ज़ल में मिठास ही तो हूँ ॥ 

डा०सुरेन्द्र सैनी  

Thursday, 27 March 2014

समुंदर सूख जाते हैं


किसी की प्यास पर सारे समुंदर दौड़ आते हैं ।
मगर जब प्यास हो मुझको समुंदर सूख जाते हैं ॥

तलातुम में फँसा अक्सर सफ़ीना देख कर मेरा ।
किनारे पर खड़े बेशर्म कैसे मुस्कुराते हैं ॥

ज़रा इक बार आ जाओ मुक़ाबिल आप लोगों के ।
फंसाने के लिए सारे फ़साने ढूंढ लाते हैं ॥

बचा लेता है चारागर अगरचे साँप काटे तो ।
नहीं बचता जिसे इंसान अक्सर काट खाते हैं ॥

नहीं साबित जो कर पाते हैं ख़ुद को काम से अपने ।
वही दामन पकड़ कर और को पीछे हटाते हैं ॥

दिखाया रास्ता मैंने जिन्हे अब तक बलंदी का ।
न जाने क्यूँ मेरे रस्ते से नक़्श -ए -पा मिटाते हैं ॥

बड़े बेआबरू हो कर निकलते हैं वो महफ़िल से ।
क़ुसूर इतना है बस हक़ के लिए वो सर उठाते हैं ॥

कभी घुटते हैं दिल-दिल में कभी जलते हैं तिल-तिल कर।
ये शायर तब कहीं जाकर जहाँ को कुछ सुनाते हैं ॥

कभी फ़ुर्क़त के आलम में लिखी 'सैनी' ने जो नग़्मे।
हमारे लब उन्हें शिद्दत से अब भी गुनगुनाते हैं ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी  

Monday, 24 March 2014

याद किये जाता हूँ

वक़्त बेवक़्त तुझे याद किये जाता हूँ । 
तेरे आने के तस्स्वुर में जिये जाता हूँ ॥ 

मेरे अश्कों से न जुड़ जाए कहीं तेरा नाम । 
ज़ब्त अश्कों को मैं आँखों में किये जाता हूँ ॥ 

नाम अब जोड़ दिया मैंने ख़ुदा से तेरा । 
मैं तो हर वक़्त तेरा नाम लिये जाता हूँ ॥ 

ज़ख़्म देते रहे जो मुझको ज़माने वाले । 
तेरी यादों के ही धागों से सिये जाता हूँ ॥ 

मैं तो मकतब में पढ़ाता हूँ सबक़ उल्फ़त  का । 
आओ तुमको भी मैं कुछ इल्म दिये जाता हूँ ॥ 

अब तो कतराने लगे आगे क़दम बढ़ने से । 
ज़िंदगी रुक गई आराम किये जाता हूँ ॥ 

जब भी 'सैनी' की मुझे याद बहुत आती है । 
जाम पे जाम लगातार पिये जाता हूँ ॥ 

डा० सुरेन्द्र सैनी  

सुरागरसाँ



सुरागरसाँ कोई उसको कहीं से ढूंढ कर लाये ।
मेरे इस डूबते दिल को ज़रा तस्कीन मिल जाये ॥

ज़रा सा सर झुकाना था तो फिर चाँदी ही चाँदी थी ।
मगर मौक़े तो मैंने ये हज़ारों बार ठुकराये ॥

खड़ा हूँ आज दो-दो हाथ करने को अजल से मैं ।
अगर आना है तो आये न आना है नहीं आये ॥

मुरव्वत का किसी का क़र्ज़ हम लौटा नहीं सकते ।
हमारी जान हाज़िर है हमारी जान ले जाये ॥

मुक़द्दर ने तो दस्तक दी मगर जब तू नहीं माना ।
मुनासिब है कहाँ ये अब तू मल -मल हाथ पछताये ॥

चली जाती हैं घर की रौनकें डसती हैं तन्हाई ।
किसी आँगन में बंटवारे की जब दीवार उठ जाये  ॥

मिज़ाज अब तक बदल पायी न लोगों का ग़ज़ल 'सैनी'।
अगरचे ख़ूब लोगों ने यहाँ दीवान छपवाये ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी  

Tuesday, 18 March 2014

कब तक

रिहाई की बनेगी बात कब तक । 
अयाँ होंगे मेरे जज़्बात कब तक ॥ 

अकेले ही मुझे जाना पडेगा । 
सफ़र में तुम रहोगे साथ कब तक ॥ 

ल का आ गया है वक़्त अब तो । 
मिलेगी प्यार की सौग़ात कब तक ॥ 

जिताने को हमेशा मैं सनम को । 
अबस खाता रहूँगा मात कब तक ॥ 

अना को मार कर मैं दोस्तों से । 
भला लेता रहूँ ख़ैरात कब तक ॥ 

रक़ीब अब भी करे ज़ख़मों को ताज़ा । 
पियेगा खूँ मेरा बदज़ात कब तक ॥ 

मियाँ 'सैनी' बता दे इस वतन के । 
"रहेंगे यार ये हालात  कब तक "॥  

डा० सुरेन्द्र सैनी  

Tuesday, 11 March 2014

ग़रज़ आश्ना

जिससे जो भी मिला माँगता ही रहा । 
उम्र भर मैं ग़रज़ आश्ना ही रहा ॥ 

दोस्ती उसको क्यूँ रास आती भला । 
काम जिसका सदा तोड़ना ही रहा ॥

उसकी शौकत के आगे हूँ बौना बहुत । 
उसके आगे मेरा सर झुका ही रहा ॥ 

मुस्कुराता रहा वो रुला कर मुझे । 
इश्क़ उसके लिए खेल सा ही रहा ॥

मैंने हद से ज़ियादा मनाया उसे । 
फिर भी हर बात पर रूठता ही रहा ॥

शौक उसको था दिल तोड़ने का बहुत । 
मेरा शीशा-ए -दिल टूटता ही रहा ॥

मेरे हालात का उसको अंदाज़ क्या । 
अब तो मतलब न कुछ वास्ता ही रहा ॥

दौर-ए -गर्दिश में घिर कर यूँ बेबस हुआ । 
हर घड़ी हौसला ढूँढता ही रहा ॥

जान तेरे लिए दोस्तों ने तो दी । 
पर तू 'सैनी' सदा बेवफ़ा ही रहा ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी  

Wednesday, 5 March 2014

वगरना करने को ख़ुदकुशी है

"नसीब वालो की ज़िंदगी है"। 
वगरना करने को ख़ुदकुशी है ॥ 

अगरचे जीना बड़ा ज़रूरी । 
तो मौत उतनी ही लाज़िमी है ॥ 

तुम्हे भरोसा नहीं अभी तक । 
हमारी चाहत में क्या कमी है ॥ 

लगी है चेहरों पे जिनके कालिख । 
उन्हीं के घर में ही रोशनी है ॥ 

ग़रीब की आर्ज़ू हमेशा । 
अमीर के क़र्ज़ में दबी है ॥ 

जो लूटता है इसे ये दुन्या । 
उसी की उंगली पे नाचती है ॥ 

सुना के 'सैनी' ग़ज़ल ये तू ने । 
बड़े ही मौक़े पे चोट की है ॥ 

डा० सुरेन्द्र सैनी

उन्हें जो देखता पाया गया हूँ

उन्हें जो देखता पाया गया हूँ । 
"भरी महफ़िल से उठवाया गया हूँ" ॥ 

मुझे फांसी मिली बस जुर्म ये था । 
धरम में मुब्तिला पाया गया हूँ ॥

डुबा कर नफ़रतों की चाशनी में । 
तुम्हारे सामने लाया गया है ॥ 

मैं हूँ मज़लूम का वो ख़ाक हिस्सा । 
जो सारा बीच में खाया गया हूँ ॥ 

नहीं कुछ वज़न था बातों में मेरी । 
मगर सिक्कों में तुलवाया गया हूँ ॥ 

बना इंसानियत की लाश हूँ मैं । 
हज़ारों बार दफ़नाया गया हूँ ॥ 

क़लम को बेच कर 'सैनी' ने लिक्खा । 
फ़साना हूँ जो लिखवाया गया हूँ ॥ 

डा० सुरेन्द्र सैनी