Thursday, 14 August 2014

बतियाने से


जान जाती है मेरी जान तेरे जाने से | 
लौट आती है मेरी जान तेरे आने से || 

आपकी बात ही कुछ मान ले शायद वर्ना | 
“दिल किसी तौर बहलता नहीं बहलाने से ||”

अर्श से फ़र्श पे आने का पता चलता है | 
लौट के घर कोई जब आता है मैख़ाने से ||

याद रखिये वो किसी के भी नहीं हो सकते | 
कान के कच्चे बहकते हैं जो बहकाने से || 

देख बदहाल गरानी ने किया है उसको | 
रोज़ तोफ़ा न नया मांग तू दीवाने से || 

हाल दिल का बयाँ मैं कैसे करूँ दिलबर से | 
उनको फ़ुर्सत नहीं उलझी लटें सुलझाने से || 

वक़्त कहता है कि तलवार उठा ली जाए | 
भूत लातों के न मानेंगे ये समझाने से || 

घर नज़र आ रहे हैं रेल के डिब्बे जैसे | 
रोज़ घर में नयी दीवार के उठ जाने से || 

आज हालात बदलने में मदद कर ‘सैनी’ |
काम चलता नहीं यूँ  बैठ के बतियाने से || 

डा० सुरेन्द्र सैनी  

Sunday, 3 August 2014

कुछ नहीं हुआ


दे दूंगा अपनी जान अगर कुछ नहीं हुआ |
धमकी तो दे दी मैंने मगर कुछ नहीं हुआ ||

चलते-चलाते लौट के फिर आ गए वहीं |
“राहें हुईं तमाम सफ़र कुछ नहीं हुआ ||”

हासिल हुई न जीत कभी हार ही हुई |
उल्फ़त में लड़ते-लड़ते ज़फ़र कुछ नहीं हुआ ||

आँखों से मेरी एक समुंदर सा बह गया |
उस बेवफा पे फिर भी असर कुछ नहीं हुआ ||

सहरा में था इरादा बनायेंगे आबशार |
दौड़े –फिरे यूँ शामो सहर कुछ नहीं हुआ ||

उम्मीद थी अवाम को राहत मिलेगी आज |
सरकार ने ये दी है ख़बर कुछ नहीं हुआ ||

‘सैनी’ ने भेज जब दिया पैग़ाम इश्क़ का |
फिर कुछ हुआ इधर क्यूँ उधर कुछ नहीं हुआ ||

डा०सुरेन्द्र सैनी

Monday, 28 July 2014

जानता कैसे

तुझको दिल से करूँ जुदा कैसे | 
हो भी आख़िर ये हौसला कैसे ||

एक शिद्दत थी उसकी नज़रों में | 
उसका इज़हार टालता कैसे ||

मेरी मंज़िल का छोर है ही नहीं | 
ग़ाम गिन कर मैं देखता कैसे ||

हो रहा क़त्ल बेगुनाहों का | 
अब ये सुलझे मुआमला कैसे ||

क़ैद में उम्र भर रहा तेरी | 
“वो ज़माने को जानता कैसे ||”

फँस गया ख़ुद के मैं झमेलों में | 
तेरे बारे में सोचता कैसे ||

मेरे जज़्बात का जो क़ातिल है | 
मान लूँ उसको रहनुमा कैसे ||

रोज़ पी कर मैं शेर कहता हूँ | 
ख़ुद कह दूँ मैं पारसा कैसे ||

मांग ली आज हस्ती सैनी’की |
यार को अब करे मना कैसे ||

डा०सुरेन्द्र सैनी

Wednesday, 23 July 2014

लहू-लहू रखना

ख़ुद को जब उनके रूबरू रखना । 
मुख़्तसर सी ही गुफ़्तगू रखना ॥

इश्क़ का एक ही तो मतलब है । 
"दिल को अपने लहू-लहू रखना "॥

मुझको महंगा पड़ा हमेशा ही । 
उनसे मिलने की आरज़ू रखना ॥

सब पे आयद है आज ये जिम्मा । 
अपने गुलशन को ख़ूबरू रखना ॥

कब मुसीबत कहाँ से आ जाए । 
अपनी नज़रों को चार सू रखना ॥

और कुछ हो न हो ज़माने में । 
सोच घटिया कभी न तू रखना ॥

दिल तो मासूम है बड़ा इस पर । 
बोझ हरगिज़ न फ़ालतू रखना ॥

जिस वतन में जनम लिया तुमने । 
उसकी महफूज़ आबरू रखना ॥

आज तू सीख ले ये 'सैनी' से । 
दिल जवाँ चेहरा सुर्ख़रू रखना ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी

Sunday, 20 July 2014

ख़ुदा की बंदगी

ख़ुदा की बंदगी में जब किसी का ध्यान हो जाए |
मुसीबत हो बड़ी कितनी वही आसान हो जाए || 

इनायत जब भी मौला की किसी पर हो उसी पल वो | 
समझिएगा बशर वो नेक दिल इंसान हो जाए || 

ख़ुदा रहता नहीं अन्जान हरगिज़ अपने बन्दों से |
भले ही आदमी उससे कभी अनजान हो जाए || 

नज़र में हो हया मेरी सुखन में हो सदाक़त बस | 
ख़ुदाया हस्ती ये मेरी अज़ीमुश्शान हो जाए || 

झुका दूँ सर मैं तेरे सामने ये है मेरी चाहत | 
तेरे दरबार में पूरा ये बस अरमान हो जाए || 

इबादत कर सके तेरी ज़बां में है कहाँ हिम्मत | 
तू मन की जान ले मुझ पर तेरा एहसान हो जाए || 

नहीं हिम्मत है ‘सैनी’ में तुझे ढूंढे वो दुन्या में | 
मेरे मौला तू उसके दिल का ही मेहमान हो जाए || 

डा० सुरेन्द्र सैनी  

Wednesday, 16 July 2014

आशियाना

"बहुत मसरूफ़ है ख़ुद में ज़माना | "
फ़ुज़ूल उसको है अपना ग़म सुनाना || 

मुहब्बत का शजर जब भी लगाना | 
समर मीठा हो एसा ढूंढ लाना || 

मुक़ाबिल आप सी जब शख़्सियत है | 
मिरी ख़ुशक़िस्मती है हार जाना || 

रही है चित तुम्हारी पट तुम्हारी | 
बड़ा मुश्किल है तुम से पार पाना || 

लिहाज़ अब तो करो कुछ उम्र का तुम | 
अरे अब छोड़ भी दीजे सताना || 

किसी की आँख में जब भी नमी हो | 
ग़ज़ल मेरी उसे फ़ौरन सुनाना || 

बड़ा मबूत है सीना हमारा | 
तुम्हारा दिल करे जब आज़माना | 

भरी है आशिक़ी नग़मों मेरे | 
सुखन मेरा नहीं है सूफ़ियाना || 

चले आओ तुम्हे ‘सैनी’ बुलाये | 
सजा है उसके दिल का आशियाना || 

डा० सुरेन्द्र सैनी    

Monday, 14 July 2014

डगर प्यार की

तुम्हें अपने दिल में बसाना हुआ |
तो दुश्मन हमारा ज़माना हुआ ||

अभी तक भी वादे पे ठहरे नहीं |
नया रोज़ उनका बहाना हुआ ||

चुनी हमने जब भी डगर प्यार की |
कहाँ साथ अपने ज़माना हुआ ||

हमारे मुक़द्दर में हँसना कहाँ |
अभी तक तो रोना रुलाना हुआ ||

हँसे आप तो हमको एसा लगा |
मुकम्मल हमारा तराना हुआ ||

ग़ज़ल कह के तारीफ़ तेरी करूँ |
मगर ढंग ये तो पुराना हुआ ||

तुझे ‘सैनी’ घर अब मयस्सर कहाँ |
बयाबान ही अब ठिकाना हुआ ||

डा० सुरेन्द्र सैनी