Wednesday, 16 April 2014

कलीसा भी हरम भी

लो टूट गया उनसे मुहब्बत का भरम भी । 
आये न अयादत को वो लो चल दिए हम भी ॥

नज़्ज़ारा कभी एसा जुदाई का न देखा । 
चेहरे पे उदासी है हर इक आँख है नाम भी ॥

है इश्क़ के मारो का कहाँ आज ठिकाना । 
"मैख़ाना भी वीराँ है कलीसा भी हरम भी "॥

किरदार सियासत का क्यूँ इतना गिरा है आज । 
जो आज सियासत में घसीटा है धरम भी ॥

आदत हुई है मुझको सितम झेलने की रोज़ । 
मुझको रुला न पायेंगे अब तेरे सितम भी ॥

कुछ शौक सियासत का उन्हें एसा लगा है | 
अब कूद गए अहले-सियासत में सनम भी ॥

जिस इश्क़ को इक आग का दरिया कहे ग़ालिब । 
उस आग में अब तो पड़े 'सैनी ' के क़दम भी ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी

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