Sunday, 25 May 2014

फ़रेब


ज़िद है उनके क़रीब जाने की । 
आरज़ू है फ़रेब खाने की ॥ 

ज़ख़्म सहने की जब नहीं क़ुव्वत । 
क्या ज़रुरत थी दिल लगाने की ॥ 

बैठ कर क़ातिलों की महफ़िल में । 
बात मत सोच मुस्कुराने की ॥ 

ज़ात पर कर लिया मेरी क़ब्ज़ा । 
अब नसीहत है भूल जाने की ॥ 

इक नशेमन है बिजलियाँ इतनी । 
फिर भी जुरअत है मुस्कुराने की ॥ 

हर घड़ी इम्तिहान लेते हैं । 
कैसी आदत है आज़माने की ॥ 

आओ चलते हैं लखनऊ 'सैनी'। 
रुत जो आयी है आम खाने की ॥ 

डा० सुरेन्द्र सैनी  

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