ज़िद है उनके क़रीब जाने की ।
आरज़ू है फ़रेब खाने की ॥
ज़ख़्म सहने की जब नहीं क़ुव्वत ।
क्या ज़रुरत थी दिल लगाने की ॥
बैठ कर क़ातिलों की महफ़िल में ।
बात मत सोच मुस्कुराने की ॥
ज़ात पर कर लिया मेरी क़ब्ज़ा ।
अब नसीहत है भूल जाने की ॥
इक नशेमन है बिजलियाँ इतनी ।
फिर भी जुरअत है मुस्कुराने की ॥
हर घड़ी इम्तिहान लेते हैं ।
कैसी आदत है आज़माने की ॥
आओ चलते हैं लखनऊ 'सैनी'।
रुत जो आयी है आम खाने की ॥
डा० सुरेन्द्र सैनी